Jaipur News: 15 दिन बाद आदिवासी अधिकारों के समर्थन में नरेश मीणा ने तोड़ा अनशन, सरकार पर संवादहीनता का आरोप
जयपुर। वर्षों से परिवेश की उपेक्षा और न्याय की आस लेकर खड़े आदिवासी परिवारों के समर्थन में आज नरेश मीणा ने अपना अनशन तोड़ा।

अपने समर्थकों के साथ उन्होंने गांवों-आसपास से आई भीड़ के बीच सरकार से मांगों पर संवाद न होने के कारण यह कदम उठाया था। अनशन के दौरान नरेश ने कहा कि उनका उद्देश्य सिर्फ निजी विरोध नहीं बल्कि उन बच्चों के परिवारों के लिए आर्थिक सहायता सुनिश्चित कराना था जो पिछले दुखद घटनाओं के शिकार हुए थे।
नरेश के समर्थक और मौजूद नागरिकों का कहना है कि 15 दिनों तक चले अनशन के बावजूद राज्य सरकार ने न तो संपर्क किया और न ही किसी तरह की सहानुभूति व्यक्त की। इसी के विरोध स्वरूप उनके समर्थक आज उनका “अंचन” तोड़ने आए। आयोजन में मौजूद राजेंद्र सिंह गुढ़ा ने संवाद के दौरान कहा कि आंदोलनकारियों का कहना है — “हम आज भी भगत सिंह जैसा त्याग देने वाले नायकों की तलाश करते हैं, और नरेश को उस नजरिये से देखा जा रहा है।
अनशन की वजहें और मांगें
नरेश ने मीडिया से बातचीत में बताया कि उनकी मांगों में पीड़ित परिवारों को आर्थिक राहत शामिल है — जैसे कि पहले सांप्रदायिक दंगों में मुआवजे के तौर पर दिए गए 50-50 लाख रुपए की तरह मृतक बच्चों के परिजनों को भी समुचित आर्थिक सहायता दी जाए। उन्होंने कहा कि वे 15 दिन तक अनशन पर रहे और सरकार की ओर से कोई ठोस पहल नहीं हुई, इसलिए वे हालिया परिस्थिति में अनशन तोड़ रहे हैं पर न्याय की मांग अभी कायम रहेगी।
उनका यह भी कहना था कि आंदोलन का उद्देश्य सिर्फ एक स्थानीय मांग नहीं है, बल्कि हाड़ौती क्षेत्र के आदिवासी एवं वंचित समाज के सतत आर्थिक-सामाजिक बदलाव के लिए जागरण करना भी है। नरेश ने यह आरोप भी लगाया कि सत्ता और पूंजी का गठजोड़ आम आदमी और पीड़ित वर्ग के खिलाफ काम कर रहा है।
समर्थन और जनभावना
घटना स्थल पर बड़ी संख्या में युवा, समर्थक और स्थानीय नागरिक उपस्थित रहे। कुछ समर्थकों ने कहा कि नरेश की मांगे यदि नहीं मानी गईं तो वे अगले चुनावों में “तीसरे मोर्चे” के रूप में नरेश को सर्वव्यापी नेतृत्व देने की रणनीति पर विचार करेंगे। कार्यकर्ता यह भी कहते दिखे कि पारंपरिक दोधारी राजनीति (कांग्रेस-बिहार जैसे) को चुनौती देने की जरूरत है और नरेश के आंदोलन ने इस विकल्प को मजबूती दी है।
कई समर्थकों ने निजी आर्थिक योगदान करते हुए कहा कि जनता ने मिलकर अनशन को अपने स्तर पर समर्थन दिया और अब यह संदेश सरकार तक पहुंचना चाहिए कि आम जनता की संवेदना और क्रोध दोनों मौजूद हैं। वहीं कुछ लोगों ने सरकार पर तीखा प्रश्न उठाया — अगर जनता किसी मुआवजे के लिए खड़ी हो सकती है तो क्या सरकार जिम्मेदारी नहीं निभा सकती?
राजनीतिक और सामाजिक निहितार्थ
इस आंदोलन और उसके आसपास की प्रतिक्रियाओं से स्पष्ट है कि परंपरागत पार्टियों के लिए चुनौती बढ़ सकती है — खासकर तब जब स्थानीय नेता और जन आंदोलन जनता के बीच व्यापक समर्थन जुटा लें। नरेश के समर्थक तीसरे मोर्चे के विकल्प की बात कर रहे हैं, जो चुनावी परिदृश्य को बदल सकता है यदि यह आंदोलन संगठित रूप ले ले।
सामाजिक दृष्टि से यह घटना आदिवासी वंचित वर्ग की पीड़ा, मुआवजे की अनिश्चितता और सरकारी जवाबदेही के मुद्दों को फिर सिंहावलोकन के केंद्र में लाती है। साथ ही यह सवाल भी उठता है कि दुर्घटनाओं व दंगों में मारे गए नागरिकों के लिए नीति-स्तर पर समान और त्वरित राहत सुनिश्चित करने के क्या मैकेनिज्म होने चाहिए।

